नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 1984 के एक रेप मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए आरोपी की सजा को बरकरार रखा है। अदालत ने साफ किया कि पीड़िता के निजी अंगों पर चोट न होना किसी भी तरह से आरोपों को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
जस्टिस संदीप मेहता और प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि यौन अपराध के मामलों में मेडिकल रिपोर्ट केवल एक सहायक साक्ष्य होती है, न कि अंतिम प्रमाण।
क्या था मामला?
यह केस 1984 का है, जिसमें एक कोचिंग टीचर पर छात्रा के साथ दुष्कर्म करने का आरोप लगा था। अदालत में सुनवाई के दौरान आरोपी ने दावा किया था कि लड़की झूठे आरोप लगा रही है और उसके शरीर पर किसी भी तरह की चोट के निशान नहीं मिले हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी के तर्क को किया खारिज
आरोपी के इस तर्क को खारिज करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी भी पीड़िता के शरीर पर चोटों की अनुपस्थिति यह साबित नहीं कर सकती कि उसके साथ अपराध नहीं हुआ। कोर्ट ने साफ किया कि कई बार भय, दबाव और परिस्थितियों के कारण पीड़िता बिना किसी संघर्ष के अपराध सहने को मजबूर हो सकती है।
आरोपी की सजा बरकरार
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए आरोपी की सजा की पुष्टि कर दी। अदालत ने कहा कि पीड़िता की गवाही और अन्य सबूत इस मामले में पूरी तरह पर्याप्त हैं।
इस फैसले का महत्व
- यौन अपराधों के मामलों में मेडिकल रिपोर्ट को अंतिम साक्ष्य न मानने की नसीहत।
- पीड़िता की गवाही को विशेष महत्व देने का संदेश।
- लंबित मामलों में न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला रेप मामलों में न्याय की नई मिसाल कायम करता है और यह संदेश देता है कि पीड़िता के शरीर पर चोटों का न होना किसी भी तरह से आरोपी के लिए बचाव का आधार नहीं बन सकता।