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LAST UPDATED: Jan. 1, 2021, 1:46 p.m.
मुकेश कुमार. 23 मई 2018 को जब जनता दल (सेक्युलर) नेता एचडी कुमारस्वामी ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली…तब बीजेपी ने इस कांग्रेस और जेडीएस का अपवित्र गठबंधन बताया था. बीजेपी नेता लगातार ये रटमारी करते रहे कि विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ा, क्योंकि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी ने तीसरे नंबर की पार्टी के नेता को सीएम की कुर्सी पर बिठा दिया. करीब ढाई साल बाद बिहार में भी ठीक ऐसा ही हुआ. विधायकों की संख्या के हिसाब से पहले नंबर की पार्टी विपक्ष में बैठी है और दूसरे नंबर की पार्टी बीजेपी ने तीसरे नंबर की पार्टी के मुखिया नीतीश कुमार को एक बार फिर से सत्ता की बागडोर सौंप दी.
हालांकि कर्नाटक और बिहार की सियासी सूरत में एक फर्क है. 2018 में कांग्रेस और जेडीएस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं था, जबकि बिहार में बीजेपी और जेडीयू एनडीए के तहत चुनाव मैदान में उतरी थी. बीजेपी ने कुमारस्वामी की सरकार को जनादेश के अपमान के तौर पर पेश किया और साम दाम दंड भेद की सियासत में कुमारस्वामी की कुर्सी चली गई. खरीद फरोख्त, प्रलोभन में इस्तीफा और विधायकों को रिसॉर्ट में छुपाये रखने की राजनीति में जेडीएस-कांग्रेस बीजेपी के सामने चारों खाने चित हो गई. चौदह महीने बाद 23 जुलाई 2019 को कुमारस्वामी की सरकार का पतन हो गया. सवाल है कि क्या बिहार में भी ऐसी सियासी सूरत दिखने वाली है ? क्या बिहार में कर्नाटक का इतिहास दोहराया जाएगा? क्या नीतीश कुमार की नियति भी कुमारस्वामी सरीखी लिखी है?
बीजेपी आलाकमान ने अभी तक नीतीश सरकार के खिलाफ ऐसा कुछ भी नहीं कहा है, लेकिन अरुणाचाल में जिस तरह बीजेपी ने अचानक जेडीयू के 6 विधायकों को तोड़ लिया, उससे सीएम नीतीश कुमार भी हैरान हैं. हालांकि नीतीश कुमार ने भी अबतक अपनी ज़ुबान से बीजेपी पर कोई सीधा हमला नहीं किया है, लेकिन बीते 26 और 27 दिसंबर को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ये मुद्दा छाया रहा.
मीडिया के सामने भी पार्टी के तमाम प्रवक्ता बीजेपी को गठबंधन धर्म की दुहाई देते दिखे.राष्ट्रीय कार्यकारिणी की इसी बैठक में नीतीश ने मुख्यमंत्री की कुर्सी को मोह नहीं मजबूरी बताया और इसी बैठक में उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ आरसीपी सिंह को कमान सौंप दी. अब 10 जनवरी को पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक हो रही है. माना जा रहा है कि इसमें भी कोई चौंकाने वाला फैसला हो सकता है. अटकलें ये भी है कि 73 साल के वशिष्ठ नारायण सिंह की जगह प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी किसी युवा के हाथ सौंपी जा सकती है.
शीतलहर के बीच बिहार का सियासी पारा चरम पर है,और इसकी वजह है कि आरजेडी के वरिष्ठ नेता उदय नारायण चौधरी का वो ऑफर, जिसमें तेजस्वी को सीएम की कुर्सी सौंपने के बदले नीतीश कुमार को विपक्ष का पीएम उम्मीदवार बनाने की पेशकश थी. हालांकि जेडीयू ने इसे तेजस्वी का सत्तालोभ बताकर ठुकरा दिया, लेकिन अगले दिन ही आरजेडी ने जेडीयू के 17 विधायकों के टूटने की आशंका जताई और नीतीश कुमार को खुद सामने आकर सफाई देनी पड़ी. बेशक नीतीश कुमार मौजूदा दौर के बिहार के सबसे बड़े और आजमाये हुए नेता हैं. 16 साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए उन्होंने कई ऐसे काम किए हैं, जिन्हें विरोधियों को भी झक मारकर कबूल करना होगा. चाहे लड़कियों को साईकिल या छात्रवृति देना हो, महिला आरक्षण हो या फिर ऐतिहासिक शराबबंदी.
पिछले कार्यकाल तक ‘सुशासन बाबू’ की छवि भी कमोबेश कायम रही. लेकिन सियासत में शख्सियत की अहमियत अब भी बरकरार है. लंबी राजनीति के लिए विचार और साख का महत्व भी गौण नहीं हुआ है और पिछले कुछ सालों में नीतीश कुमार ने इन दोनों की अनदेखी की है. पद के लिए पाला बदल के खेल ने उनकी साख पर बट्टा लगा दिया है. मुमकिन है बीजेपी उन्हें लंबे वक्त तक ढोती रह जाए, लेकिन विपक्ष के प्रधानमंत्री पद का सर्वमान्य उम्मीदवार बनने का सुनहरा मौका वो पांच साल पहले ही गंवा चुके हैं. तेजस्वी यादव सीएम की कुर्सी के बदले पीएम पद के लिए उनके नाम का प्रस्ताव तो कर सकते हैं, लेकिन ऐसी कोई साबुन नहीं दे सकते, जिससे नहाकर नीतीश कुमार तमाम विपक्षी दलों की नज़र में ‘सेक्युलर’ हो जाएं.
(लेखक news 24 में प्रोड्यूसर हैं और ये उनके निजी विचार हैं. )