नई दिल्ली: एक कागज… एक कागज की आपके जीवन में क्या अहमियत होगी? क्या एक कागज…जिस पर सिर्फ इतना भर सबूत देना हो कि सामने खड़ा व्यक्ति ‘जीवित’ है. जिसे पाने के लिए 18 साल संघर्ष करना पड़े, भरी विधानसभा में ‘भगत सिंह’ बनना पड़े, तो समझिए आप कागज की कहानी के इर्द गिर्द हैं.
जी हां, पंकज त्रिपाठी के सशक्त अभिनय से परिपूर्ण सिस्टम की आत्मा को ‘जिंदा’ कर देने वाली कहानी है फिल्म ‘कागज.’ फिल्म में एडिटिंग की कुछ कमियों को निकाल दिया जाए तो कागज की कलम सही चलती दिखाई पड़ती है.
फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के लाल बिहारी ‘मृतक’ की जीवनी पर आधारित है, जिन्हें 18 सालों तक खुद को जीवित साबित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. आप आदमी हों और आपका कोई सामान चोरी हो जाए तो सोचेंगे कि पुलिस में रिपोर्ट करवाएं या नहीं, मान लो रिपोर्ट भी करवा दें, सामान मिल जाए और अपराधी भी पकड़ा जाए, तो सामान को कोर्ट से छुड़वाना उससे बड़ा काम हो जाएगा, इसमें भी बरसों बीत सकते हैं, लेकिन भरत लाल यानी पंकज त्रिपाठी का किरदार देखकर आपमें लड़ने की हिम्मत जरूर आ सकती है, इतना तय है.
फिल्म में लाल बिहारी का नाम बदलकर भरत लाल किया गया है. ओटीटी पर रिलीज की गई इस फिल्म में किरदारों के नाम और व्यवसाय बदले गए हैं. फिल्म की कहानी भरत लाल के गांव से शुरू होती है. भरत एक बैंडवाला है और उसकी ठीकठाक दुकान चल रही होती है, लेकिन काम बढ़ने लगता है तो लोग उससे कहते हैं कि बैंक से लोन लेकर दुकान बड़ी कर सकता है. उसकी पत्नी भी इसके लिए प्रेरित करती है.
भरत बैंक जाता है तो पता चलता है कि कुछ सामान गिरवी रखना होगा. इसके लिए वह अपने पुश्तैनी गांव जाता है, जहां पता चलता है कि उसे चचेरे भाईयों ने लेखपाल से मृतक घोषित करवाकर उसकी जमीन हड़प ली है. बस, यहीं से शुरू हो जाता है, मृतक को जिंदा साबित करने का संघर्ष.
कोर्ट, कचहरी, सरकारी दफ्तरों, मंत्रियों के घरों के बाहर जुटने वाली भीड़ में से कुछ पागल, कुछ सिरफिरे जरूर होते हैं. बस, इसी पर लिखी गई है ‘कागज’ की ये कहानी. सिस्टम को चीर-चीर कर देने वाली इस कहानी में एक के बाद एक कई मोड़ आते चले जाते हैं. आज भी कई लोगों को अपने जिंदा होने का सबूत देना होता है, कई दफा पेंशन के लिए तो कई बार सरकारी सुविधाओं के लिए…आप उन लोगों के संघर्ष का अंदाजा इस फिल्म से लगा सकते हैं.
किरदार
भरत लाल का किरदार वो पगलेट बैंडवाला है, जो सबकी ऐसी बैंड बजाता है कि सब देखते ही रह जाते हैं. पंकज त्रिपाठी ने इस किरदार को बखूबी जीया है. पंकज त्रिपाठी और सतीश कौशिक ने हर बार की तरह दर्शकों को मोहित किया है. पंकज से दर्शकों की उम्मीदें पूरी होती हैं. फिल्म में भरत लाल की पत्नी का किरदार अभिनेत्री मोनल गज्जर ने निभाया है. मोनल ने अच्छा काम किया है.
फिल्म का सबसे सशक्त डायलॉग
यूं तो फिल्म में कई अच्छे डायलॉग हैं, लेकिन भरी अदालत में पंकज त्रिपाठी का अपने अलहदा अंदाज में जज से ये सवाल करना…
“हुजूर आप कागज की बात कर रहे हैं और हम इंसान की…
आप अदालत हैं, आप कागज की सुनेंगे या इंसान की सुनेंगे?
कागज बड़ा है या इंसान बड़ा है?
दिल इंसान के सीने में धड़कत है कि कागज के सीने में धड़कत है?
खून इंसान के सीने में दौड़त है कि कागज के सीने में?
मेहरारू, बच्चे कागज के होत हैं कि इंसान के?”
सिस्टम को झकझोर देने के लिए काफी हैं.
फिल्म की कमी
कुछ सीन आपको ‘फिलर’ यानी जबरन भरे हुए और कुछ सीन जल्दबाजी में काटे हुए लग सकते हैं, लेकिन अंत भला तो सब भला… से इन्हें दरकिनार किया जा सकता है. फिल्म में स्थानीय भाषा में गीत का संयोजन सबसे बेहतरीन और कला का नमूना है. परिस्थितियों पर पिरोए गए गीतों ने दिल जीतने का काम किया है.
फिल्म की शुरुआत सलमान खान की आवाज में इस कविता से होती है
कुछ नहीं है, मगर है सब कुछ भी
क्या अजब चीज है ये कागज भी
बारिशों में नाव कागज की
सर्दियों में अलाव कागज की
आसमां में पतंग कागज की
सारी दुनिया में जंग कागज की…
और फिल्म का अंत भी एक कविता के साथ…
रेटिंग, 5 में से 3.5