𝐘𝐚𝐦𝐮𝐧𝐚𝐧𝐚𝐠𝐚𝐫 𝐍𝐞𝐰𝐬 : मंत्रों से प्रकट हुई माता मंत्रा देवी के इस मंदिर का क्या है इतिहास - माता के दर्शन करने दूर दूर से पहुँचते है भक्त !!
आदिबद्री -माता मंत्रा देवी मंदिर का इतिहास
यमुनानगर DIGITAL DESK || हरियाणा राज्य की शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं में हिमाचल प्रदेश के साथ लगती सबसे ऊंची पहाड़ी पर माता मंत्रा देवी विद्यमान हैं। माता के मन्दिर तक यमुनानगर-जगाधरी से बिलासपुर (व्यासपुर)रणजीतपुर होते हुए काठगढ़ गांव तक 35 कि0मी0 की दूरी सडक़ मार्ग द्वारा तय करके 4 कि0मी0 ऊपर पर्वत श्रृंखलाओं पर पैदल चढाई करके पहुंचा जा सकता है।
बता दें कि कार्तिक मास की पूर्णिमा के उपलक्ष में तीर्थराज कपाल मोचन में आयोजित होने वाले कपाल मोचन मेला में सदियों से आने वाले श्रद्धालु एवं यात्री यहां के तीनों पवित्र सरोवरों में स्नान करने के बाद आदिबद्री क्षेत्र में स्थित सरस्वती के उद्गम स्थल के दर्शनों व आदि नारायण मंदिर तथा केदारनाथ मंदिर में पूजा अर्चना करने के बाद श्रद्धालु ऊंचे पर्वत पर स्थित माता मंत्रा देवी के मंदिर में पूजा अर्चना के लिए जाते हैं।
आदिबद्री क्षेत्र देवताओं की तपोभूमि मानी जाती है और यहीं से सरस्वती नदी का उद्गम हुआ है। हरियाणा सरकार द्वारा सरस्वती उद्गम स्थल के नजदीक भव्य सरस्वती स्नान सरोवर का निर्माण करवाया गया है। कपाल मोचन मेला के दौरान व अन्य पावन अवसरों पर श्रद्धालु सरस्वती स्नान सरोवर में भी स्नान करते हैं।
मंत्रों से प्रकट हुई माता मंत्रा देवी का यह मंदिर भारत वर्ष में एक अद्वितीय रूप में हरियाणा राज्य की सबसे ऊंची 2 हजार फुट पहाड़ी चोटी पर सुशोभित हैं। यहां एक सुंदर गुफा में नर-नारायण की अति दिव्य अलौकिक एवं मनमोहक दो मूॢतयां एक ही लाल पत्थर में पिंडी रूप में विराजमान हैं। गुफा के बाहर चार फुट ऊंचे द्वारपाल के रूप में श्री हनुमान जी एवं भैरव जी की प्रतिमाएं स्थापित हैं।
मान्यता है कि यहां वर्ष में एक बार समस्त देवता अपने हाथों से हलवा प्रसाद आदि मिष्ठान बनाकर भगवती के साथ प्रसाद ग्रहण करते हैं। मान्यता यह भी है कि लक्ष्मी पूजा की अर्ध रात्रि में माता मंत्रा देवी के मंदिर के 500 मीटर नीचे स्थित बरगद के पेड़ से आज भी हर साल एक चमकती हुई ज्योति प्रकट होती है और मंदिर में जाकर विलीन हो जाती है।
माँ माता मंत्रा देवी के मंदिर से पूर्व दिशा में एक विशाल पर्वत है जिसे गुरु शिखर कहते हैं और उसी के ठीक 500 मीटर नीचे ब्रह्मा, विष्णु व शिव नाम के तीन कुंड हैं। सृष्टि पालन और संहार के लिए लोक चौदह भुवन स्वर्ग मृत्यु पाताल तैतीस कोटि देवता होते हैं परन्तु देवताओं को उस शक्ति के बारे में जानकारी नहीं थी। अत: देवताओं ने यज्ञ रचाये और आदिशक्ति ने प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए। उसी समय वो शक्ति जो देवताओं को देखने को मिली वही दो शक्ति एक ही लाल पत्थर में अलग-अलग रूप में अंकित होकर पिंडी के रूप में इस पर्वत पर निवास करती है।
यमुनानगर-जगाधरी से बिलासपुर, रणजीतपुर होते हुए काठगढ़ गांव से छोटी बड़ी मनमोहक पर्वत मालाओं को पार करके 4 कि0मी0 पैदल पर्वत श्रृंखला नाहन, सरौठा जमदाग्नि धूना रेणुका एवं हिमाचल की अनेक श्रृंखलाओं का विहंगम दृश्य देखते हुए ऊंची चोटी पर स्थित अति प्राचीन लक्ष्मी नारायण के उस मंदिर में पहुंचा जा सकता है जिसकी स्थानीय लोग सदियों से माता मंत्रादेवी के नाम से पूजा आराधना करते आ रहे हैं।
कहा जाता है की !!!
इस बारे में किंवदंती है कि भगवान विष्णु ने एक बार लक्ष्मी जी से कहा कि हे लक्ष्मी वैसे तो मैं तुम्हे एक क्षण भी अपने से विमुख नहीं रखना चाहता हूँ परन्तु इस समय पृथ्वी संकटों से घिरी हुई है। अत: उसका उद्धार करने हेतु मुझे सरस्वती नदी के उद्गम स्थल के नजदीक कुछ समय एकांत में तप करना होगा। तुम निश्चिंत रहना मैं पृथ्वी की ङ्क्षचता दूर करके शीघ्र ही वापिस आऊंगा।
ऐसा कहकर श्री विष्णु बैकुंठ धाम से आदिबद्री क्षेत्र में पृथ्वी पर आकर तप करने लगे। उधर लक्ष्मी जी को भी लगा कि विष्णु अकेले तप कर रहे है मैं भी उनके तप में सहयोगी बनूं। इसी इच्छा से श्री लक्ष्मी जी भी विष्णु जी को देखने पृथ्वी पर आ गईं। लक्ष्मी जी देखती हैं कि समस्त भू-मंडल के मालिक भगवान विष्णु वैशाख-ज्येष्ठ (मई-जून) महीने की कठोर धूप में खुले आकाश के नीचे घोर तप कर रहे हैं। लक्ष्मी जी यह दृश्य देख न सकी और तुरन्त श्री विष्णु के तप करने के स्थान पर एक बदरी (बेरी) का पेड़ बन भगवान विष्णु को शीतल छाया प्रदान करने लगी।
भगवान विष्णु तपस्या में लीन थे और शीत, उष्ण, सर्दी, गर्मी, धूप, छाया आदि की ओर उनका कोई ध्यान नहीं था। एक दिन वह समय भी आया जिस दिन भगवान विष्णु का तप पूरा होना था उसी उपलक्ष में देवताओं ने एक यज्ञ का आयोजन किया। परन्तु अर्धांगिनी के बिना यज्ञ कैसे पूरा होगा। भगवान विष्णु की चिंता को दूर करने हेतु समस्त देवताओं ने यज्ञ से एक दिव्य कन्या को प्रकट किया और भगवान विष्णु को इसे अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करने को कहा। इतने में लक्ष्मी जी बदरी (बेर) के पेड़ के रूप में सहभागिनी बनी हुई थी व सब घटना देख रही थी उसे लगा कि अब नारायण भगवान विष्णु दूसरा विवाह रचाने लगे हैं तथा मुझे त्याग देंगे, भगवान विष्णु बैकुंठ वापिस नहीं जाएंगे।
इस भय से लक्ष्मी बदरी (बेरी)के पेड़ के रूप को छोडक़र अपने असली रूप में प्रकट हो गई। बेरी का पेड़ गायब हो गया। उसी पेड़ की जगह लक्ष्मी भगवान विष्णु के पीछे खड़ी नजर आई। यह देख विष्णु भगवान ने मंत्रों से प्रकट हुई उस कन्या से कहा कि हे कन्या आप अत्यंत भाग्यशाली हो मैं आपके साथ सदा ही निवास करूगा परन्तु अब श्री लक्ष्मी जी आ गई हैं इस अवस्था में आप ही मेरी रक्षा कर सकती हैं। आपके उपकार को मैं तुम्हे सम्पूर्ण शक्ति प्रदान करके चुकाऊंगा और आपके भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हुए कलयुग में आपका चारों दिशाओं में यश फैलाऊंगा। तुम इसमें तनिक भी संदेह न करो। आप तत्काल ही यहां से अंतर्ध्यान होकर सामने पर्वत शिखर में निवास करो। वहां तुम्हारी व मेरी दोनों की ही दिव्य लाल वर्ण के पत्थर की प्रतिमा में मैं तुम्हारे साथ निरंतर निवास करूंगा। फिर भी यह स्थान मेरे नाम से न होकर केवल तुम्हारे नाम से ही जाना जाएगा। इस पुण्य तीर्थ में लोग पूजा भी तुम्हारी ही करेंगे।
कलयुग मेंं भक्तों को वरदान देने के लिए माता मंत्रा देवी के नाम से आप सदा ही सुविख्यात होंगी। मैं तुम्हारे साथ नित्य चमत्कारी लीलाएं करता रहूंगा। आदिबद्री क्षेत्र में स्थित गांव रामपुर गेंडा के एक किसान को पशु चराते हुए मां मंत्रा देवी उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने के लिए कहा। किसान ने माँ मंत्रा से वरदान मांगा कि मेरी इच्छा घी की छाव में सोने की है। माता मंत्रा देवी ने उसकी इच्छा पूर्ण की और उसके घर में इतनी गऊएं एवं दूधारू पशु हो गए कि उसके घर में घी-दूध की कोई कमी नहीं रही।
भगवान विष्णु के ऊपर संकट मंडराता देख यज्ञ मंत्रों से प्रकट हुई कन्या मंत्रा देवी इस प्राचीन भवन में श्री नारायण के सूक्ष्म विग्रह के साथ निवास करने लगी। उधर लक्ष्मी सहित विष्णु जी यज्ञ समाप्त कर व पृथ्वी को संकटों से मुक्त कर क्षीर सागर में पहले की तरह लक्ष्मी जी के साथ रहने लगे।